भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में शादी की एक नई रस्म, हल्दी रस्म, तेजी से प्रचलित हो रही है। इस रस्म में हजारों रुपये खर्च करके विशेष डेकोरेशन किया जाता है, और दूल्हा और दुल्हन विशेष पीले वस्त्र पहनते हैं। यह रस्म 2020 से पहले राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में अज्ञात थी, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसका प्रचलन तेजी से बढ़ा है। यह नई रस्म आर्थिक बोझ और सामाजिक दबाव का कारण बन रही है, खासकर उन परिवारों के लिए जिनकी आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं है। इसे रोकने की मुहिम चलाने की आवश्यकता है।”
अमीरों के चक्कर में बेचारा गरीब पिस रहा है। आज-कल ग्रामीण परिवेश में होने वाली शादियों में एक नई रस्म का जन्म हुआ है हल्दी-रस्म। हल्दी रस्म के दौरान हजारों रूपये खर्च कर के विशेष डेकोरेशन किया जाता है, उस दिन दूल्हा या दुल्हन विशेष पीत (पीले) वस्त्र धारण करते हैं। साल 2020 से पूर्व इस हल्दी रस्म का प्रचलन राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में कहीं पर भी देखने को नहीं मिलता था, लेकिन पिछले साल दो-तीन साल से इसका प्रचलन बहुत तेजी से ग्रामीण क्षेत्र में बढ़ा है। पहले हल्दी की रस्म के पीछे कोई दिखावा नहीं होता था, बल्कि तार्किकता होती थी। पहले ग्रामीण क्षेत्रों में आज की तरह साबुन व शैम्पू नहीं थे और ना ही ब्यूटी पार्लर था। इसलिए हल्दी के उबटन से घिसघिस कर दूल्हे-दुल्हन के चेहरे व शरीर से मृत चमड़ी और मैल को हटाने, चेहरे को मुलायम और चमकदार बनाने के लिए हल्दी, चंदन, आटा, दूध से तैयार उबटन का उपयोग करते थे। ताकि दूल्हा-दुल्हन सुंदर लगे। इस काम की जिम्मेदारी घर-परिवार की महिलाओं की थी। लेकिन आजकल की हल्दी रस्म मोडिफाइड, दिखावटी और मंहगी हो गई है। जिसमें हजारों रूपये खर्च कर डेकोरेशन किया जाता है। महंगे पीले वस्त्र पहने जाते है। दूल्हा दुल्हन के घर जाता है और पूरे वातावरण, कार्यक्रम को पीताम्बरी बनाने के भरसक प्रयास किये जाते हैं। यह पीला ड्रामा घर के मुखिया के माथे पर तनाव की लकीरें खींचता है।
आजकल काफी जगह यह भी देखने को मिलता है कि बच्चे (जिनकी शादी है) मां-बाप से कहते है आप कुछ नहीं जानते, आपको समझ नहीं है, आपकी सोच वही पुरानी अनपढ़ों वाली रहेगी, यह कहते हुए अपने माता-पिता को गंवारू, पिछड़ा, ‘थे तो बौझ्अ बरगा’ हो कहते हैं। मैं जब भी यह सुनता हूं, सोचने को विवश हो जाता हूं। पांव अस्थिर हो जाते हैं। बड़ी चिंता होती हैं कि मेरा युवा व छोटा भाई-बहिन किस दिशा में जा रहे हैं?
इस तरह की फिजूलखर्ची वाली रस्म को रोकने के समाचार पढ़ कर खुशी होती है लेकिन अपने घर, परिवार, समाज, गांव में ऐसे कार्यक्रम में शरीक होकर लुत्फ उठा रहे हैं, फोटो खिंचवाकर स्टेटस लगा रहे हैं। फिर तो वही बात हो गई कि तुझे रोकना तो चाहता हूं, मगर तूं रूकना नहीं, मुझे तेरी महफ़िल में रोकना तो चाह रहे है मगर तू रुकना नहीं हमें महफिल में शरीक होना है, यानी कथनी और करनी में अंतर स्पष्ट है। क्या इसे रोकने की मुहिम चलाई जाए ?
शादी-ब्याह में हल्दी रस्म बनी,रील रस्म
राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में इन दिनों शादी-ब्याह की सीजन जोर-शोर से शुरू हुई है। इस में एक हल्दी-रस्म आजकल बहूत पोपुलर बन गई है इसकी मुख्य वजह इंस्टाग्राम,फेसबुक आदि सोशल प्लेटफार्म है। हल्दी-रस्म के दौरान हर युवक-युवतीयों रील बनाते है। बेटे के रील बनाने के चक्कर में बाप की कर्ज उतरने में ही रेल बन जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे घरों में फिजूल खर्ची में पैसा पानी की तरह बहाया जाता है जिनकें मां-बाप ने हाड-तोड़ मेहनत और पसीने की कमाई से पाई-पाई जोड़ कर मकान का ढांचा खड़ा किया, लेकिन ये नवयौवन लड़के-लडकियां बिना समझे अपने मां-बाप की हैसियत से विपरीत जाकर अनावश्यक खर्चा करते हैं। जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं हो उन परिवारों के बच्चों को मां-बाप से जिद्द करके इस तरह की फिजूल खर्ची नही करवानी चाहिए।